कोविड-19 के पर्यावरण से जुड़े पहलुओं पर विश्वव्यापी बहस चल रही है। खासकर इस पर गर्मी के असर और प्रदूषण से जुड़े मुद्दों को लेकर चर्चा जारी है। भारतीय चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना को लेकर अभी स्पष्ट अध्ययन नहीं है लेकिन वायरस के संक्रमण को लेकर अब तक हुई खोजें और विज्ञान बताता है कि ज्यादा गर्मी में इसका फैलाव कम हो सकता है।
यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज के कम्युनिटी मेडिसिन के निदेशक डा. अरुण शर्मा ने क्लाइमेट ट्रेंड द्वारा आयोजित ऑनलाइन सेमिनार में कहा कि कोरोना वायरस शरीर के भीतर के तापमान में जीवित रहता है जो करीब 37 डिग्री सेल्सियस होता है। इसलिए इस तापमान में इसे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन वायरस का विज्ञान कहता है कि जब तापमान 42-44 डिग्री सेल्सियस होगा तो सतह पर इसका जीवित रहना मुश्किल होगा। यानी हवा के जरिए या सतह को छूने से जो संक्रमण होता है, वो रुक सकता है। यह बात अब तक सभी वायरस पर लागू होती है।
बता दें अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि प्लास्टिक पर 72, स्टील पर 48, लकड़ी पर 12 और हवा में तीन घंटे कोरोना का वायरस जीवित रहता है। शर्मा ने प्रदूषित क्षेत्रों में वायरस से मृत्यु दर अधिक होने संबंधी हार्वर्ड विश्वविद्यालय के अध्ययन को लेकर कहा कि यह लंबे समय तक पीएम-25 से प्रभावित लोगों में मृत्यु दर अधिक होने की तरफ संकेत करता है। वास्तविक खतरे के आकलन के लिए और अध्ययन करने की जरूरत है। कोरोना के संक्रमण से भारत में मृत्यु दर अन्य देशों की तुलना में ज्यादा है, क्या इसका कारण प्रदूषण है? उन्होंने कहा कि इस पर अभी कोई ठोस अध्ययन नहीं हुआ है।