मुझको आज भी याद है धोनी और युवराज बैटिंग कर रहे थे. जीत करीब आकर एक बस एक बड़े शाट का इंतजार कर रही थी. स्ट्राइक युवराज के पास थी. वो धोनी के पास पहुंचे. कुछ मंत्रणा हुई. शायद ये कि कैप्टेन अब विजयी शाट तो तुम्हीं को लगाना है. युवराज ने गेंदों को पुश किया कि स्ट्राइक. ओवर बदला. स्ट्राइक कप्तान धोनी के पास थी. गेंदें पर्याप्त थीं…तभी धोनी का बल्ला घूमा और गेंद हवा गगनचुंबी घुमाव लेती हुई दर्शक दीर्घा में गिरी…और फिर क्या था..जिधर देखो खुशी का ज्वार ही ज्वार उठता हुआ नजर आया. कुछ खुशियां ऐसी होती हैं, जिसके इजहार करने का तरीका अनायास खुद ब खुद हो जाता है. उस रात स्टेडियम में कुछ ऐसा ही हो रहा था.
जीत के आधे घंटे के बाद जब मैदान पर खुशियों का जबरदस्त इजहार करने के बाद स्टेडियम से बाहर निकलकर दर्शक बाहर सड़कों पर थिरकने लगे, तब प्रेस दीर्घा में मौजूद पत्रकार भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की प्रेस कांफ्रेंस के लिए नीचे बने हॉल में इकट्ठा होने लगे. कुछ देर बाद कप्तान धोनी संयत अंदाज में वहां पहुंचे. साथ में आईसीसी के मीडिया ऑफिशियल और युवराज सिंह.
इतनी बड़ी जीत के बाद भी धोनी काफी हद तक संयत थे. मुस्कुरा रहे थे. कोई बड़बोलापन नहीं. मैने ये भी देखा था कि जीत के बाद जब टीम मैदान में सचिन तेंदुलकर को कंधे पर बिठाकर विजय रैली निकाल रही थी, तब धोनी पीछे पीछे चल रहे थे. मानो ये सारा श्रेय खुद लेने के बाद टीम को ही देना चाहते हों. इसके बाद जब वर्ल्ड कप उन्हें दिया गया तो भी उन्होंने ये कप तुरंत टीम को पकड़ा दिया. ग्रुप तस्वीरों में भी वो बीच में नहीं होकर किनारे थे.आई एम लकी कहकर हंसे धोनी
अलबत्ता युवराज सिंह चेहरे पर जरूर खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. धोनी से उस दिन बहुत सवाल पूछे गए थे लेकिन एक जवाब मुझको अब तक याद है, आई एम लकी. फिर हंसे और बोले मैं मजाक कर रहा था. युवराज उस फाइनल मैच में मैच आफ द मैच बने थे और साथ ही प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट. प्रेस कांफ्रेंस के दौरान वो कुछ खांसते हुए लगे. ये कांफ्रेंस करीब 40 मिनट चली. फिर धोनी और युवराज वहां से होटल ताज से लिए निकल पड़े.
मुंबई का ताज होटल आनंद की लय पर थिरक रहा था. धोनी और उनकी टीम यहीं ठहरी थी. उस रात होटल ने टीम के लिए शानदार इंतजाम किए थे. होटल में ठहरे लोग उनसे मिलने को उतावले थे. वैसे उस रात देशभर में भी किसकी आंखों में कहां नींद थी.
28 साल बाद (1983 में कपिल के देवों के चैंपियन बनने के बाद) भारत ने वो विजय हासिल की थी, जिसका अहसास खुशी के किसी भी पर्व और लम्हों से ज्यादा बड़ा था. वानखेडे में उस रात महेंद्र सिंह धौनी एंड कपंनी विजय के चरम शिखर को छुआ था.
किसी सुखद सपने की तरह
वह सब कुछ मेरे लिए अब भी सुखद स्वप्न की तरह लग रहा है. आंखों के सामने बार-बार वो पल खुशगवार बयार की तरह महसूस होती हुई लगती है. वर्ल्ड कप का फाइनल मैच यूं तो दोपहर ढाई बजे शुरू होना था, लेकिन दर्शकों की आवाजाही सुबह दस बजे से शुरू हो चुकी थी.
नीली टोपियां, नीली जर्सी और तिरंगे ही तिरंगे
एक बजे तक पूरा स्टेडियम नीले रंग में नहाया हुआ था. यों कहिए कि ब्लू-ब्लू हो रहा था. नीली टोपियां, नीली जर्सियां और लहराते हुए हजारों तिरंगे. मैच से एक दिन पहले प्रेस कांफ्रेंस में भारत और श्रीलंका के कप्तानों की बॉडी लैंग्वेज भी कुछ अलग कहानी कह रही थी. अगर महेंद्र सिंह धोनी आत्मविश्वास से भरपूर थे तो श्रीलंकाई कप्तान कुमार संगकारा कुछ ठंडे से.
नीली टोपियां, नीली जर्सी और लहराते हुए तिरंगे
जब फाइनल मुकाबला शुरू हुआ तो सब कुछ टीम इंडिया के माफिक लग था. जहीर खान के लगातार तीन मेडन ओवर के बाद चौथे ओवर में ओपनर उपुल थरंगा की छुट्टी हो गई. ये करोड़ों भारतीयों के लिए राहत की बात थी, क्योंकि थरंगा और दिलशान तिलकरत्ने की ओपनिंग जोड़ी पूरे टूर्नामेंट में गजब छाई हुई थी.
भारत को लक्ष्य मिला 275 रन
श्रीलंका की पारी को झटके लगते रहे लेकिन वो आगे भी बढ़ती रही. जयवर्धने ने उस दिन अगर शतक लगाया तो युवराज सिंह ने हर बार तब विकेट दिलाए जब हालात काबू से बाहर होने लगते. दिक्कत ये थी कि आखिर के पांच ओवरों में श्रीलंकाई बैटिंग जहां बेलगाम साबित हुई तो हमारी गेंदबाजी उतनी ही फुसफुसी. पांच ओवरों में 63 रनों का बनना आखिर यही बताता है. टारगेट मिला 275 रन.
ओह ये क्या हो गया
क्या आप यकीन करेंगे कि पहली ही गेंद पर टीम इंडिया के ओपनर वीरेंद्र सहवाग का विकेट गिरते ही वानखेडे में सन्नाटा छा गया, पिन ड्राप साइलेंस. सचिन तेंदुलकर अपने ही मैदान पर दस साल की उम्र में देखे सपने को पूरा करने उतरे. लेकिन फीके रहे.
कुछ लोगों का मानना था कि समुद्र की ओर से आतीं हवाएं और रात की नमी भारतीय बल्लेबाजों के लिए और मुश्किलें पैदा करेंगी. जब सचिन भी सस्ते में आउट होकर लौटे तो 275 रनों का स्कोर वाकई बड़ा लगने लगा. हर ओर निराशा फैल गई. 40,000 दर्शकों का दिल भी कुछ बैठा लग रहा था.
असंभव कुछ नहीं होता
क्या वाकई असंभव कुछ होता है? इतिहास ने कई बार साबित किया है कि अगर ठान लो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं. दुनियाभर के विजेताओं की कहानियां तो कम से कम यही कहती हैं. उस दिन समुद्र से आती हवाएं भी शायद टीम इंडिया के बल्लेबाजों के कानों में यही कहानियां बुदबुदा रही थीं. फिर वो चले जो पूरे टूर्नामेंट में नहीं चले थे यानि कप्तान महेंद्र सिंह धोनी और गौतम गंभीर.
वर्ल्ड कप का एक सुनहरा लम्हा, धोनी का छक्का..और हमारी जीत
गंभीर के गजब 96 रन
हां, इससे पहले हमारे आज के हीरो विराट कोहली आत्मविश्वास की डगर को मजबूत कर गए थे. गंभीर ने 96 रनों के सहारे भारतीय पारी की शुरुआती मजबूती गढ़ी. धोनी ने तो लगता है कि अपनी सबसे शानदार बैटिंग फाइनल के लिए बचाकर रखी थी. अविजित 91 रन. ..और वो छक्का तो अब तक जेहन में ताजा है जिसे लगाने के बाद पूरे देश का समां ही बदल गया.
रास्ता बनता चला गया
फाइनल में मलिंगा की खतरनाक यार्कर का सामना ना तो आसान था और न ही दिलशान की दनदनाती गेंदें चैन लेने देने वाली थीं. इन सबसे बचे तो मुरलीधरन की घातक फिरकी पैर उखाड़ने के लिए तैयार थी…लेकिन 02 अप्रैल 2011 को इनके बीच रास्ता बनता चला गया. 37वें ओवर तक जीत की सुगंध फैलने लगी थी.
तब सचिन आंख बंदकर करके बुदबुदा रहे थे
जब धोनी विजय का तिलक लगाने जा रहे थे तब सचिन ड्रेसिंग रूम में आंखें बंदकर भगवान से जीत की दुआ के लिए बुदबुदा रहे थे. जीत के तुरंत बाद जब टीम इंडिया के क्रिकेटर फटाफट मैदान की ओर भागे तो आंख मूंदे सचिन को साथ लेने के लिए उन्हें पलटकर ड्रेसिंग रूम का रुख करना पड़ा.
जीत के बाद फिर निकली टीम इंडिया की विजय यात्रा, जिसमें टीम सचिन तेंदुलकर को कंधों पर उठाए हुए थी
जीत के बाद निकली विजय यात्रा
मास्टर ब्लास्टर ने तो जीत का संकल्प करके दाढ़ी बढ़ाई हुई थी. फिर वानखेडे स्टेडियम में टीम इंडिया के रणबांकुरों की विजय यात्रा निकली. पहले सचिन को कंधे पर बिठाया. फिर कोच ग्रेग क्रिस्टेन को भी कंधों पर उठाया गया.
1983 में कपिल देव के देवों ने पहली बार हमें पहली बार जिस विश्व विजय के शिखर पर चढ़ाया था, वो शिखर फिर हमारा था. जीत भी ऐसी कि आप सिर उठाकर गर्व से कह सकें हां जीत तो ऐसी ही होती है.
वंदेमातरम..वंदेमातरम..इंडिया..इंडिया..
अब भी याद आ रहा है कि किस कदर घंटों पूरे स्टेडियम में लगातार वंदेमातरम… वंदेमातरम… इंडिया… इंडिया की आवाजें गूंजती रहीं. स्टेडियम में एक साथ जब हजारों कंठों से ये आवाजें ध्वनिनाद कर रही थीं तो इसने हर किसी को अलौकिकता की तान से बांध दिया था. दूधिया रोशनी, हरा-भरा मैदान…हजारों तिरंगों के साथ हिलोरे लेता जनसमुद्र…अब लगता है कि क्या गजब का जादुई माहौल था उस दिन.
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