बिहार में फिलहाल सामने नहीं आया कोई मामला
हालांकि बिहार में अब तक कोरोना वायरस का एक भी मरीज नहीं मिला है, इसके बावजूद एहतियात के तौर पर सरकार ने राज्य में 31 मार्च तक स्कूलों, कॉलेजों, सिनेमा हॉल, कोचिंग सेंटर इत्यादि को बंद कर दिया है. सरकार की तरफ से 13 मार्च को लिये गये इस फैसले में यह भी तय हुआ था कि इस अवधि में मिड-डे मील के लिए जो राशि हर बच्चे के नाम पर जारी होती है, उसे बच्चों के खाते में ही डाल दिया जाये. बिहार सरकार के शिक्षा विभाग ने 14 मार्च, 2020 को राज्य के सभी जिलाधिकारियों को पत्र जारी कर बताया कि 14-31 मार्च तक की अवधि में अवकाश होना है, इस अवधि में 15 कार्यदिवस के आधार पर बच्चों को मिड-डे मील की राशि उनके खाते में डाली जायेगी.
पत्र में हुआ मिड डे मील की राशि का खुलासाउस पत्र में इसका विवरण भी दिया गया कि हर बच्चे के खाते में कितनी राशि जमा होगी. पत्र के मुताबिक पहली से पांचवी कक्षा के बच्चों के खाते में 114.21 रुपये और छठी से आठवीं तक के बच्चों के खाते में 171.17 रुपये जमा होंगे. इस तरह देखें तो पांचवी तक के बच्चों के मिड-डे मील के लिए 7.61 रुपये रोजाना खर्च किये जाने का प्रावधान है और आठवीं तक के बच्चे के लिए 11.41 रुपये रोजाना का प्रवाधान है.
इस पत्र के मुताबिक प्राइमरी स्कूल के बच्चों के लिए 100 ग्राम चावल और आठवीं तक के बच्चों के लिए 150 ग्राम चावल की व्यवस्था करनी है. नियमानुसार 30 ग्राम दाल, 75 ग्राम सब्जी और 7.5 ग्राम वसा या तेल भी इस मिड-डे मील में पड़ना है. दाल और सब्जी की बाजार की कीमतों के आधार पर यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि बच्चों की थाली में क्या आता होगा. इस बात का अंदाजा लगाने से पहले हमें इस परम सत्य का भी अंदाजा लगाना चाहिए कि लगभग पूरे देश में मिड-डे मील व्यवस्था किसी न किसी किस्म के भ्रष्टाचार का शिकार रही है. शिक्षकों, पंचायत प्रतिनिधियों से लेकर प्रखंड स्तर के अधिकारियों तक की नजर इस पैसे पर रहती है, ग्रामीण स्तर पर खबरों का संकलन करने वाले संवाददाताओं पर भी इस मसले में रिश्वत की उम्मीद रखने के आरोप लगते रहे हैं.
मिड-डे मील को माना गया फालतू कामइन आंकड़ों को सामने रखने का एक अभिप्राय यह भी है कि अपने देश में अक्सर मिड-डे मील को फालतू का काम माना जाता है. मध्यम वर्ग को लगता है कि यह पैसा बेवजह खर्च हो रहा है, इसका कोई नतीजा नहीं निकलता. मगर ये आंकड़े जाहिर करते हैं कि इन बच्चों को एक वक्त का भोजन कराने में हमारी सरकारें कितना कम पैसा खर्च करती हैं. इसमें केंद्र की हिस्सेदारी 70 फीसदी और राज्य की सिर्फ 30 फीसदी होती है.
अगर 11.41 रुपये प्रति दिन का ही हिसाब रखें, जो आठवीं तक के बच्चों के लिए निर्धारित है तो पांच लोगों के परिवार के लिए एक महीने का हिसाब 1711 रुपये का बनता है. आप यह अंदाजा लगाइये कि क्या किसी परिवार में महज 1711 रुपये प्रति माह खर्च कर परिवार के लोग पूरे माह पौष्टिक भोजन कर सकते हैं? होटल, रेस्तरां और ढाबे की तो बात ही छोड़ दीजिये.
बच्चों में तमाम तरीकों की कमजोरियां
खास तौर पर बिहार जैसे राज्य के लिए इस मसले पर विचार करना इसलिए भी जरूरी है कि 48 फीसदी बच्चे अभी भी बौने रह जाते हैं, 42 फीसदी बच्चों का वजन उनकी लंबाई के मुकाबले समुचित नहीं होता. जहां बीस फीसदी बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित होते हैं. जहां सिर्फ 7.5 फीसदी शिशुओं को समुचित आहार नसीब हो पाता है. जहां 63 फीसदी बच्चे एनीमिक होते हैं. इन तमाम बीमारियों और कमियों की एकमात्र वजह पोषण आहारों की कमी होती है.
महिला और पुरुषों की हालत भी खराब
बिहार ही वह राज्य है जहां चमकी बुखार की वजह से हर साल सैकड़ों बच्चे असमय मृत्यु के शिकार हो जाते हैं और विशेषज्ञों के मुताबिक इसकी एक बड़ी वजह बच्चों का कुपोषण है. बचपन में पौष्टिक आहर न मिलने की वजह से ही बिहार की 30.4 फीसदी महिलाओं और 25.4 फीसदी पुरुषों का बीएमआई इंडेक्स औसत से काफी कम है. ये सभी आंकड़े 2015-16 में जारी नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के ही हैं. जाहिर है, इन परिस्थितियों में कुपोषित बच्चे एक कमजोर पीढ़ी में बदल जाते हैं, जो बौद्धिक औऱ शारीरिक दोनों रूप से थोड़ा हीन होते हैं. ऐसे में उसके हिस्से सिर्फ अकुशल मजदूरी का काम आता है और वह गरीब का गरीब बना रह जाता है.
आज अगर बिहार देश को सस्ता और अकुशल मजदूर देने वाले राज्य के रूप में बन कर रह गया है, तो उसकी एक बड़ी वजह यहां बच्चों को उचित पोषण औऱ आहार नहीं मिलना है. बेहतर शिक्षा औऱ स्वास्थ्य बाद की बात है. बच्चों को बेहतर शिक्षा के साथ-साथ उचित पोषण भी मिले, इसी वजह से मिड-डे मील की योजना शुरू की गयी थी. मगर अफसोस यह योजना उपेक्षा, अवहेलना और भ्रष्टाचार का शिकार हुई. इसे पैसे की बर्बादी माना जाने लगा. जबकि इस योजना की हकीकत यही है कि हमारी सरकार इन गरीब और मासूम बच्चों को महज साढ़े सात रुपये की थाली खिलाती है.